मुहर्रम का महीना हो तो जाहिर सी बात है इस पर तो चर्चा होनी ही चाहिए कि आज के दौर के अमीर मुआबिया कितनी शिद्दत से अपने बेटों यानि कि यज़ीदों के हाथ पर हसन और हुसैनों से बेअत कबूल करवाने को मरे जा रहे है।
जम्हूरियत के इस दौर में में भी आपको हर तरफ अमीर मुआबिया या कहे कि धृतराष्ट्र मिल जाएंगे जो अपने अपने बेटों को जनता पर गाहे-ब-गाहे थोपने को उतावले हुए जा रहे है। जरा अपने चारों और निगाह तो दौड़ाइये आपको ढेरो घृतराष्ट्र दरबार सजाए मिल जाएंगे। जहाँ हर आने वाले को “गांधारी की पट्टी” उढाई जाती है, जाहिर सी बात है खुली आंख से दुर्योधन तो बहुत दूर की बात, धृतराष्ट्र को खुद को पचाना भी मुश्किल होता है। हाँ लालच की पट्टी आंख पर चढ़ी नही फिर भले ही यज़ीद हो या दुर्योधन, यहां तक कि दुनियां की लाज हरने वाला दुःशासन भी सर-माथे मंजूर।
चुनाँचे पंची, सरपंची, पार्षदी, तबादले या आवंटन की पट्टी पर पट्टी चढ़ाई जाती है फिर ये पट्टी वाले “जमूरे” पलक झपकते ही जम्हूरियत को कब जमूरियत में बदल देते है किसी को पता भी नही चलता। हर यज़ीद की ताजपोशी का यही तरीका तो रहा है। यही से हर बार हसन-हुसैन के कत्ल की शुरुआत होती है और यही से पांडवों के वनवास और महाभारत की भूमिका लिखी जाती है।
हर युग मे न केवल हम इसके साक्षी वरन भागीदार भी होते है, बावजूद इसके हमारे विलाप करने का तरीका नही बदलता।
“हाय, हसन हम न थे!
“हाय, हसन हम न थे!
काहे का कर्बला?
काहे का “कुरुक्षेत्रे: धर्म क्षेत्रे:”?
यही तो दस्तूर-ए-दौर है, दिल, दिमाग और आंखों पर पट्टी बांधो और माल सूतों।
दुर्योधन की जय हो !
यज़ीद की फतह हो !!