जीत हो या हार खास हैं भूमिहार, आईये समझते हैं उत्तर प्रदेश की राजनीति में भूमिहार जाति का प्रभाव

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दिव्येन्दु राय –

कहा जाता है कि आजादी की लड़ाई हो या फिर सियासत, भूमिहारों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका साबित की है।

उत्तर प्रदेश के जातिगत समीकरण में भूमिहार संख्या बल में भले ही कम हों, पर चुनावी समीकरण दुरुस्त करने में ये सभी राजनीतिक दलों की मजबूरी हैं। खासकर पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सियासत में भूमिहारों की खूब हनक है। बनारस के क्रांतिकारी राजनारायण को भला कौन भूल सकता है, जिन्हें लोकबंधु की उपाधि मिली। हापुड़ के चौधरी रघुवीर सिंह त्यागी जिन्होंने अंग्रेजो के खिलाफ मोर्चा बुलन्द किया, उन्हें भला इतिहास कैसे भूल सकता है?

पूर्वांचल में प्रयागराज से बस्ती और पश्चिमांचल में बागपत से गौतमबुद्ध नगर तक भूमिहार वोट खासी तादाद में हैं। पूर्वांचल और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में कोई ऐसी सीट नहीं है, जहां पर भूमिहार मतदाता नतीजों को प्रभावित न करते हों। इसका प्रमाण इस इलाके की कई सीटों पर भूमिहार नेताओं का लगातार जीतना है। खास तौर से अगर घोसी, वाराणसी, प्रयागराज, मऊ, देवरिया, कुशीनगर, गोरखपुर, मिर्जापुर और गाजीपुर के पुराने चुनावी नतीजों पर नजर डालें तो घोसी के पहले सांसद अलगू राय शास्त्री, जयबहादुर सिंह, शिवराम राय फिर झारखंडे राय लंबे समय तक निर्वाचित होते रहे। इसके बाद जनता दल से चुनाव जीतने वाले राजकुमार राय भी भूमिहार ही थे। कल्पनाथ राय और घोसी तो एक-दूसरे की पहचान ही बन गए थे। आज़ादी के बाद से लगभग 50 साल घोसी संसदीय क्षेत्र में तो भूमिहार ही सांसद निर्वाचित हुए।

उत्तर प्रदेश के बाद बिहार, झारखण्ड, बंगाल, असम, दमन द्वीप, दिल्ली और उत्तराखंड के सियासी समीकरणों में भी भूमिहारों की खासी भूमिका है। वर्तमान समय में भूमिहार जाति के विधायक अथवा सांसद इन सभी सूबों में हैं।

आजादी की लड़ाई में भी आगे

आजादी के आंदोलन में भूमिहारों का त्याग-बलिदान गौर करने वाला है। बलिया तब गाजीपुर के साथ जुड़ा था और अंग्रेजों के खिलाफ बिगुल बजाने में भूमिहार बिरादरी आगे थी। तभी तो बलिया सबसे पहले एक दिन के लिए आजाद हुआ और चित्तू पांडेय कलेक्टर की कुर्सी पर बैठ फरमान सुनाने लगे। शेरपुर की घटना ने भी अंग्रेजी हुकूमत को हिलाकर रख दिया था।

हर सरकार में छाए रहे

पूर्वांचल में एक कहावत मशहूर है – ‘राह छोड़ जात…होई भूमिहारा।’ धनबल और बाहुबल में आगे रहने वाले भूमिहार समाज ने समय और स्थिति को भांप रास्ता चुनने में कभी देर नहीं की और बिहार में तो बाकायदा एक कहावत कही जाती है, “नदी नाला सरकार क, बाकी सब भूमिहार क।”

बनारस और कुशीनगर तो सिर्फ भूमिहारों का

बनारस और तमकुही स्टेट के राजा भूमिहार थे। कहते हैं कि पंडित नेहरू ने बहुत कोशिश की, लेकिन राज परिवार राजनीति में नहीं आया। तब डॉ. रघुनाथ सिंह पहली दफा वाराणसी के सांसद हुए और तीन बार 1964 तक लगतार जीते।
ऐसे ही विश्वनाथ राय 3 बार देवरिया फिर सलेमपुर एवं पडरौना से सांसद चुने गए। कामरेड सत्यनारायण सिंह अगले सांसद हुए। अविभाजित बनारस यानी वाराणसी, चंदौली और भदोही की सीटें भूमिहारों के पास होती थीं। वाराणसी कैंट सीट तो परंपरागत भूमिहार सीट मानी जाती रही है। समाजवादी नेता शतरुद्र प्रकाश अपना गुरु राजनारायण को मानते थे, सो कई दफा कैंट से जीतकर विधानसभा में पहुंचे। बाद में बीजेपी के हरिश्चंद्र श्रीवास्तव भी भूमिहारों की निकटता के कारण ही गोरखपुर से आकर यहां जीत गए। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस के अजय राय के मुकाबले में भूमिहारों की बड़ी तादाद ने नरेंद्र मोदी को पसंद किया, जिससे जीत एकतरफा रही नहीं तो बनारस संसदीय क्षेत्र में ही तकरीबन 4 लाख 70 हज़ार भूमिहार मतदाता हैं। नए परिसीमन में सेवापुरी विधानसभा सीट में भूमिहारों की बड़ी तादाद है।

अल्पसंख्यक बन गए

जातीयता का बोलबाला होने के साथ सियासत में भूमिहारों की हनक घटती गई। पूर्वांचल में महज नौ से ग्यारह फीसदी ही इनकी आबादी है। पूर्वांचल में 80 से 85 तथा पश्चिम में 20 से 25 सीटों पर बैलेंसिंग फैक्टर हैं, यानी सूबे में भूमिहार 100 , सवा सौ सीटों पर जीत सकते हैं या किसी को भी जीता सकते हैं। उत्तर प्रदेश की कुल जनसंख्या में लगभग तीन फीसद भूमिहार मतदाता हैं।
भूमिहारों द्वारा उपयोग किये जाने वाले टाईटलों के आधार पर इनकी पहचान कर पाना आसान नहीं है। भूमिहार समाज के लोग त्यागी, राय, शर्मा, सिन्हा, पाण्डेय, द्विवेदी, तिवारी, शाही, कुमार, वत्स, मिश्रा, सिंह आदि लिखते हैं। कमोबेश सभी दल इन्हें लुभाने की कोशिश करते रहते हैं। बुद्धि-विचार से प्रबल भूमिहार अल्पसंख्यक की श्रेणी में आ चुके हैं। आपस में ये कभी गोलबंद नहीं हो पाते थे लेकिन 2014 के बाद से भूमिहारों की गोलबंदी दिखने लगी है। हर दल में भूमिहारों की तादाद होगी, लेकिन उनकी केंद्रीय भूमिका समय के साथ घटती ही गई।

वर्तमान समय में उत्तर प्रदेश में 9 भूमिहार विधायक, एक सांसद तथा दो विधानपरिषद सदस्य हैं।

सूर्य प्रताप शाही पथरदेवा (देवरिया) भाजपा
उज्ज्वल रमण सिंह करछना (प्रयागराज) सपा
उपेन्द्र तिवारी फेफना (बलिया) भाजपा
सत्यवीर त्यागी किठौर (मेरठ) भाजपा
अजीत पाल त्यागी मुरादनगर (गाजियाबाद) भाजपा
अवधेश सिंह पिण्डरा (वाराणसी) भाजपा
सुरेन्द्र सिंह रोहनिया (वाराणसी) भाजपा
अलका राय मोहम्दाबाद (गाजीपुर) भाजपा
सुभाष राय जलालपुर (अम्बेडकर नगर) सपा

अतुल राय सांसद घोसी (मऊ)

अरविंद कुमार शर्मा एमएलसी (मऊ)
अश्विनी त्यागी एमएलसी (मेरठ)

मनोज राय जिला (जिला पंचायत अध्यक्ष मऊ)
ममता त्यागी (जिला पंचायत अध्यक्ष गाजियाबाद)

भूमिहारों के पास सभी योग्यता

‘देश हो या प्रदेश, यहां अब भी डॉमिनेंट कास्ट डेमोक्रेसी (प्रभु जाति प्रजातंत्र) का ही बोलबाला है। समाजशास्त्र में प्रभु या दबंग जाति उसे कहते हैं, जो चार चीजों – संख्या बल, शिक्षा का स्तर, भू स्वामित्व (आर्थिक हैसियत) और राजनीतिक औजार बनाने में सफल रही हो। भूमिहार समाज इस योग्यता को काफी हद तक पूरा करता है।’

देश की राजनीति में दिखाया दम

राजनारायण: राजनैतिक संघर्ष को वैचारिक स्तर पर धारदार बनाया। आयरन लेडी इंदिरा गांधी को इलाहाबाद हाई कोर्ट में तथा रायबरेली चुनाव में हराया। जनता पार्टी सरकार में वे स्वास्थ्य मंत्री रहे।

रघुनाथ सिंह: रघुनाथ सिंह के बिना भूमिहार समाज के बारे में चर्चा अधूरी है। जहाजरानी मंत्रालय यानी तब के जहाजरानी निगम के दो बार चेयरमैन और बनारस के तीन बार सांसद रहे।

कल्पनाथ राय: केंद्र में इंदिरा गांधी, राजीव गांधी और नरसिंह राव सरकार में कल्पनाथ राय मंत्री रहे। कांग्रेस सरकार में ही उनपर ‘टाडा’ में केस चला और काफी समय जेल में रहने के बाद बरी हुए थे। उन्होंने जेल से ही 1996 का लोकसभा चुनाव निर्दल प्रत्याशी के तौर पर लड़ा और विजयी हुए।

प्रदेश में ये रहे मंत्री

कुंवर रेवती रमण सिंह (सपा), जगदीश नारायण राय (बसपा), अजय राय (भाजपा), सूर्यप्रताप शाही(भाजपा), नारद राय (सपा), मनोज राय (सपा), पीके राय(सपा), उज्ज्वल रमण सिंह(सपा), भूषण त्यागी(सपा), राजपाल त्यागी(सपा&बसपा), रविन्द्र किशोर शाही (भाजपा), उपेन्द्र तिवारी(भाजपा), लल्लन राय(सपा), सीपी राय(सपा), उत्पल राय(बसपा), रुद्र प्रताप सिंह(सपा)।

वर्तमान केंद्रीय मंत्री: गिरिराज सिंह(केन्द्रीय मंत्री)
वर्तमान उपराज्यपाल: मनोज सिन्हा, आरएन रवि

कहने वाले तो यह भी कहते हैं कि पूर्वांचल के विकास में भूमिहारों का बड़ा योगदान है। इस जाति से संबंध रखने वाले राजाओं की ही व्यवस्था है कि काशी नगरी दुनिया की निराली नगरी में गिनी जाती है। भूमिहार एक विचार है और वे राष्ट्र प्रेम में सबसे आगे हैं। जब भी बात त्याग-बलिदान की हो तो अपनों को छोड़कर यह जाति देशप्रेम प्रदर्शित करती है।

यूपी में सरकार चाहे कांग्रेस की रही हो या भाजपा या फिर भाजपा व सपा की, भूमिहार नेताओं को तवज्जो हमेशा मिली। एक समय रहा जब पं.कमलापति त्रिपाठी भूमिहार-ब्राह्मण व मुस्लिमों के समीकरण से सियासी ऊचाइयां छूते रहे और कांग्रेस का यही फिक्स वोट बैंक रहा। गौरी शंकर राय, झारखंडे राय, गेंदा सिंह, विक्रमा राय, रविन्द्र किशोर शाही, जयबहादुर सिंह, शिवराम राय, विश्राम राय, त्रिवेणी राय, कृष्णानंद राय(बड़े), रासबिहारी, विश्वनाथ राय, रुद्र प्रताप सिंह और पंचानन राय के बाद चर्चित भूमिहार नेताओं में कल्पनाथ राय भारतीय राजनीति में अमिट हस्ताक्षर हैं। कालांतर में भूमिहारों का बड़ा तबका रामलहर में बह गया। राम मंदिर का असर कम हुआ तो यही तबका कांग्रेस और सपा की ओर झुका दिखा, 2012 के विधानसभा चुनाव में पूरी तरह सपा की सरपरस्ती में खड़ा हुआ तो उसे सत्ता के शिखर पर बैठा दिया लेकिन नरेन्द्र मोदी युग के आते ही भूमिहार भाजपा के पक्ष में लामबंद हुए और सूबे में भाजपा की सरकार बनवा दिए।

हर जगह कोटा तय

भाजपा की कल्याण सिंह सरकार में देवरिया के सूर्यप्रताप शाही भूमिहार कोटे से फिट हुए तो बसपा सरकार में जौनपुर के भूमिहार नेता जगदीश नारायण राय को ऊंची कुर्सी मिली। अखिलेश सरकार में वाराणसी के मनोज राय से लेकर बलिया के नारद राय और गोरखपुर के पीके राय, प्रयागराज के उज्ज्वल रमण सिंह, लल्लन राय, मेरठ के भूषण त्यागी तक को लालबत्ती मिल गई। वर्तमान में देवरिया के सूर्य प्रताप शाही और बलिया के उपेन्द्र तिवारी उत्तर प्रदेश सरकार में मंत्री की कुर्सी को सुशोभित कर रहे हैं।
2014 लोकसभा चुनाव में भूमिहार समाज ने मुरझाए ‘कमल’ को क्या खिलाया, मनोज सिन्हा को केंद्र सरकार में दो मंत्रालय मिल गए थे। सूबे की कमान मनोज सिन्हा को मिलनी तय मानी जा रही थी, ना मिलते ही भूमिहारों की नाराज़गी भाजपा से शुरू हो गई तो उसे दूर करने के लिए भाजपा ने दो विधान परिषद सदस्य अरविन्द कुमार शर्मा और अश्विनी त्यागी को बनाया।

एके शर्मा चूँकि प्रधानमंत्री के खास थे और नौकरी छोड़ कर राजनीति में आये थे इसलिए उनको उपमुख्यमंत्री बनाये जाने के कयास लगाए जाने लगी लेकिन उनको भाजपा का प्रदेश उपाध्यक्ष बना दिया गया। अब इसे पूरा ना होता देख एवं सूबे की सरकार द्वारा लगातार अपमान होता देख भूमिहारों में भाजपा के प्रति आक्रोश पैदा हो रहा है। उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण समाज के मन में भाजपा के प्रति जो आक्रोश व्याप्त है, वह किसी से छुपा नहीं है। जबकि सूबे में लगभग 15 से 17 फीसद ब्राह्मण मतदाता हैं। मुस्लिम समुदाय जो सूबे में काफी अच्छी संख्या में है, उसका झुकाव सामान्यतः सपा एवं कांग्रेस के साथ रहता है। ऐसे में उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव में लड़ाई राजपूत बनाम यादव की हो सकती है क्योंकि दोनों जाति के मतदाता अपनी-अपनी जाति का मुख्यमंत्री बनाने के लिए प्रतिबद्ध दिख रहे हैं।

ऐसे में वर्तमान समय में भाजपा के मूल मतदाता भूमिहारों तथा ब्राह्मणों का नाराज़ होना भाजपा के लिए बेहद ही नुकसान देह साबित हो सकती है। भूमिहारों के सबसे बड़े नेता कुँवर रेवती रमण सिंह समाजवादी पार्टी के कद्दावर नेता हैं एवं वह जिस प्रकार खुद से जुड़े एवं भूमिहार समाज के लोगों की मदद कर देते हैं उस हैसियत में वर्तमान समय में कोई नेता नहीं है और समाजवादी पार्टी की तरफ झुकाव की एक वजह सपा के प्रवक्ता राजीव राय भी हैं जिनके तर्कशास्त्र का हर कोई फैन है। ऐसे में नाराज भूमिहारों तथा ब्राह्मणों का झुकाव अधिकांशत: समाजवादी पार्टी की तरफ तथा कुछ आचार्य प्रमोद कृष्णम और अजय राय की वजह से कांग्रेस की ओर होता दिख रहा जिससे सर्वाधिक नुकसान भाजपा का होना तय है।

– DivyenduRai

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